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रामचरित मानस


चौपाई :

* गयउँ उजेनी सुनु उरगारी। दीन मलीन दरिद्र दुखारी॥

गएँ काल कछु संपति पाई। तहँ पुनि करउँ संभु सेवकाई॥1॥


भावार्थ:-हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! सुनिए, मैं दीन, मलिन (उदास), दरिद्र और दुःखी होकर उज्जैन गया। कुछ काल बीतने पर कुछ संपत्ति पाकर फिर मैं वहीं भगवान्‌ शंकर की आराधना करने लगा॥1॥


* बिप्र एक बैदिक सिव पूजा। करइ सदा तेहि काजु न दूजा॥

परम साधु परमारथ बिंदक। संभु उपासक नहिं हरि निंदक॥2॥


भावार्थ:-एक ब्राह्मण वेदविधि से सदा शिवजी की पूजा करते, उन्हें दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और परमार्थ के ज्ञाता थे, वे शंभु के उपासक थे, पर श्री हरि की निंदा करने वाले न थे॥2॥


* तेहि सेवउँ मैं कपट समेता। द्विज दयाल अति नीति निकेता॥

बाहिज नम्र देखि मोहि साईं। बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं॥3॥


भावार्थ:-मैं कपटपूर्वक उनकी सेवा करता। ब्राह्मण बड़े ही दयालु और नीति के घर थे। हे स्वामी! बाहर से नम्र देखकर ब्राह्मण मुझे पुत्र की भाँति मानकर पढ़ाते थे॥3॥


* संभु मंत्र मोहि द्विजबर दीन्हा। सुभ उपदेस बिबिधि बिधि कीन्हा॥

जपउँ मंत्र सिव मंदिर जाई। हृदयँ दंभ अहमिति अधिकाई॥4॥


भावार्थ:-उन ब्राह्मण श्रेष्ठ ने मुझको शिवजी का मंत्र दिया और अनेकों प्रकार के शुभ उपदेश किए। मैं शिवजी के मंदिर में जाकर मंत्र जपता। मेरे हृदय में दंभ और अहंकार बढ़ गया॥4॥


दोहा :

* मैं खल मल संकुल मति नीच जाति बस मोह।

हरि जन द्विज देखें जरउँ करउँ बिष्नु कर द्रोह॥105 क॥


भावार्थ:-मैं दुष्ट, नीच जाति और पापमयी मलिन बुद्धि वाला मोहवश श्री हरि के भक्तों और द्विजों को देखते ही जल उठता और विष्णु भगवान्‌ से द्रोह करता था॥105 (क)॥

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